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कविता

शब्द

मुकेश कुमार


स्याही में गले तक डूबे हुए हैं शब्द
हाथ उठाए पुकारते हैं
बचाओ-बचाओ।

लंबी और गहरी होती जा रही हैं उनकी परछाइयाँ
सांध्य वेला में

संदिग्ध से खड़े हैं सूने गलियारे में
अपने अर्थ पूछते दीवारों, किवाड़ों और पदचापों से

आते-जाते लोग देखते हैं उन्हें
अविश्वास से
नाउम्मीदी से
तिरस्कार से
या फिर रहम से

गिड़गिड़ाते हैं,
रिरियाते हैं
अपनी बेबसी पर तरस खाकर
खामोश हो जाते हैं वे
कभी-कभी फिसल भी पड़ते हैं
लोभ-लालच में

शब्द अब शब्द नहीं रहे
उनकी सत्ता हड़प ली गई है
जर्जर हवेलियों में रहते हैं वे
सत्ताच्युत शासकों की तरह
झूठी शान और राजसी परिधान ओढ़े
सिर पर मुकुट धारण किए हुए।

 


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